महाकवि आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा रची गई हाइकू जापानी कविता

दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज इन दिनों (Japanese Haiku, 俳句 ) जापानी हायकू (कविता) की रचना कर रहे हैं | हाइकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। महाकवी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लगभग 500 हायकू लिखे हैं, जो अप्रकाशित हैं। कुछ हायकू इस प्रकार हैं :-
1. जुडो ना जोड़ों, जोड़ों बेजोड़ जोड़ों, जोड़ा तो छोडा |
2. संदेह होगा, देह है तो देहाती ! विदेह हो जा |
3. ज्ञान प्राण है, संयत हो तो त्राण, अन्यथा स्वान |
4. छोटी दुनिया, काया में सूख दुःख, मोक्ष नरक |
5. द्वेष से बचो, लवण दूर् रहे, दूध ना फटे |
6. किसी भी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं |
7. तेरी दो आँखें, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा |
8. चाँद को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है |
9 – मैं निर्दोशी हूँ, प्रभु ने देखा वैसा, कर्ता रहता।
10 – आज्ञा का देना, आज्ञा पालन से भी, कठिनतम।
11 – तीर्थंकर क्यों, आदेश नहीं देते, सो ज्ञात हुआ।
12 – साधु वृक्ष है, छाया फल प्रदाता, जो धूप खाता।
13 – गुणालय में, एक आध दोष भी, तिल सालगे।
14 – पक्ष व्यामोह, लौह पुरुष को भी, लहू चुसता।
15 – पूर्ण पथ लो, पाप को पीठ दो, वृत्ति सुखी हो।
16 – भूख मिटी है, बहुत भूख लगी है, पर्याप्त रहें।
17 – टिमटिमाते, दीपक को देख, रात भा जाती।
18 – परिचित भी, अपरिचित लगे, स्वस्थ्य ध्यान में (बस हो गया)।
19 – प्रभु ने मुझे, जाना माना परन्तु, अपनाया ना।
20 – कलि न खिली, अगुंली से समझो, योग्यता क्या है ?
21 – आँखें लाल है, मन अन्दर दोषी, दोनों में कौन ?
22 – इष्ट सिद्धी में, अनिष्ट से बचना, दुष्टता नहीं।
23 – सामायिक में, कुछ न करने की, स्थिति होती है।
24 – मद का तेल, जल चुका बुझा सो, विस्मय द्वीप।
25 – ध्वजा वायु से, लहराता पे वायु, आगे न आती।
26 – ज्ञेय चिपके, ज्ञान चिपकता तो, स्मृति हो आती।
27 – तैराक बनू, बनू गोताखोर सो, अपूर्व दिखे।
28 – वर्षा के बाद, कड़ी मिट्टी सी माँ हो, दोषी पुत्र पे
29 – कछुए सम्, इन्द्रिय संयम से, आत्म रक्षा हो।
30 – डूबना ध्यान, तैरना स्वाध्याय है, यथोच्छ डूबो।
31 – गुरु मार्ग में, पीछे की हवा सम्, हमें चलाते।
32 – संघर्ष में भी, चंदन सम सदा, सुगन्ध बाँटू।
33 – प्रदर्शन तो, उथला है दर्शन, गहराता है।
34 – योग साधन, है उपयोग शुद्धि, साध्य सिद्ध हो।
35 – योग प्रयोग, साधन है साध्य तो, सदुपयोग।
36 – धर्म का फल, बाद में न अभी है, पाप का क्षय।
37 – पर पीड़ा से, अपनी करुणा सो, सक्रिय होती।
38 – सीना तो तानो, पसीना तो बहाओ, सही दिशा में।
39 – प्रश्नों से परे, अनुत्तर है उन्हें , मेरा नमन।
40 – फूल खिला पे, गंध नहीं आ रही, सो काग़ज़ का।
41 – सरोवर का, अन्तरंग छुपा क्यों ? तरंग वश।
42 – मान शत्रु है, कछुआ बन बंचु, खरगोश से।
43 – हाई कू कृति, तिपाई सी अर्थ को, ऊँचा उठाती।
44 – अधुरा पूरा, सत्य हो सकता है, बहुत नहीं।
45 – भूख लगी है, स्वाद लेना छोड़ दें, भर लें पेट।
46 – ज्ञानी कहा था, जब बोलूँ अपना, स्वार्थ छूटता।
47 – गुरू ने मुझे, प्रगट कर दिया, दिया दे दिया।
48 – नीर नहीं तो, समीर सही प्यास, कुछ तो बुझे।
49 – निजी प्रकाश, किसी प्रकाशन में, क्या कभी दिखा ?
50 – जितना चाहो, जो चाहो जब चाहो, क्या कभी मिला।
51 – वैधानिक तो, पहले बनो फिर, धनिक बनो।
52 – टिमटिमाते, दीपक को भी पीठ, दिखाती रात ।
53 – रोगी की नहीं, रोग की चिकित्सा हो, अन्यथा भोगो।
54 – देखा ध्यान में, कोलाहल मन का, निन्द ले रहा।
55 – मिट्टी तो खोदो, पानी को खोजे नहीं, पाना फूटेगा।
56 – चिन्तन मुद्रा, जिनकी नहीं हो, क्यों, वह दोष है।
57 – सुनना हो तो, नगाड़े के साथ में, बाँसुरी सुनो।
58 – मलाई कहाँ, अशान्त दूध में सो, प्रशान्त बनो।
59 – कब पता न, मरण निश्चित है, फिर डर क्यों ?
60 – भरा घड़ा भी, खाली लगे जल में, हवा से बंचू।
61 – उस वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक है। (सब समान)
62 – नो मास उलटा, लटका आज तक (रहा पेट में) सो डर कैसा ?
63 – मोक्षमार्ग तो, भीतर अधिक है, बाहर कम।
64 – गूँगा गुड़ का, स्वाद क्या नहीं लेता ? वक्ता क्यों बनू।
65 – कमल खिले, दिन के ग्रहण में, कखघ हों।
66 – पैर उठते, सीधे मोती के भी पे, उलटे पड़ते।
67 – भूल सपना, वर्तमान अपना, भावी कल्पना।
68 – काले मेघ भी, नीचे तपी धरा को, देख रो पड़े।
69 – घी दूध पुन:, बने तो मुक्त पुन:, हम से रागी।
70 – उससे डरो, जो तुम्हारे क्रोध को, पीते ही जाते।
71 – शून्य को देखूँ , वैराग्य बड़े-बड़े, नेत्र की ज्योति।
72 – पौधे न रोपे, छाया और चाहते, निकम्मे से हो।
73 – उनसे मत, डरो जिन्हें देख के, पारा न चढ़े।
74 – क्या सोच रहे, क्या सोंचू जो कुछ है, कर्म के धर्म।
75 – चन्द्र को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य अकेला। (सुर्य सन्त है)
76 – तुम्बी तैरती, औरों को भी तारती, छेद वाली क्या ?
77 – आलोचन से, लोचन खुलते हैं, सो स्वागत है।
78 – दुग्ध पान में, गिरा नीला सा जीव, तनु प्रमाण ।
79 – स्वानुभव की, समीक्षा पर करें, तो आँखें सुने।
80 – स्वानुभव की, प्रतिक्षा स्व करे तो, कान देखता।
81 – मूल बोध में, बड़ की जटाएँ सी, व्याख्याऐं न ही।
82 – मन अपना, अपने विषय में, क्यों न सोचता ?
83 – स्थान समय, दिशा आसन इन्हें , भूलते ध्यानी।
84 – चिन्तन न हो, तो कुछ चिन्ता नहीं, चित्त स्वरुपी।
85 – एक आँख भी, काम में आती पर, एक पंख क्या ?
86 – नय-नय है, विनय पुरोधा (प्रमुख) है, मोक्षमार्ग में।
87 – ज्ञान प्राण है, संयम तो त्राण हैं, अन्यथा स्वान।
88 – सम्मुख जा के, दर्पण देखता तो (दर्पण में देखा पे) मैं नहीं दिखा।
89 – पाषाण भीगे, वर्षा में हमारी भी, यही दशा है।
90 – आपे में न हो (नहीं), तभी तो अस्वस्थ हो, अब तो आओ।
91 – दीपक अनेक, प्रकाश में प्रकाश, एक मेक सा।
92 – होगा चाँद में, दाग चान्दनी में ना, ताप मिटा तो।
93 – प्रतिशोध में, ज्ञानी भी अन्धा होता, शोध तो दूर।
94 – निन्द्रा वासना, दो बहनें हैं जिन्हें, लज्जा न छूती।
95 – प्रश्नों से परे, अनुत्तर हैं उन्हें, उर में धारूं।
96 – जिस बोध में, लोकालोक तैरते,उसे नमन।
97 – उजाले में हैं, उजाला करते हैं, गुरु को वन्दू ।
98 – उन्हें जिनके, तन-मन नग्न हैं, मेरा नमन।
99 – शिव पथ के, कथक वचन भी, शिरोधार्य हो।
100 – देखा ध्यान में, कोलाहल मन का, निन्द ले रहा।
101 – रोगी की नहीं, रोग की चिकित्सा हो, अन्यथा भोगो।
102 – व्यंग का संग, सकलांग से नहीं, विकलांग से।
103 – कुछ न चाहूं, आप से आप करें, बस ! सद्ध्यान।
104 – सुनना है तो, नगाड़े के साथ ही, बाँसुरी सुनो।
105 – बड़े तूंफा में, शीर्षासन लगाता, बेंत झुकता।
106 – आशा जीतना, श्रेष्ठ निराशा से तो, सदाशा भली।
107 – भूल-बोध में, बड़ की जटाऐं सी, व्याख्याऐं न हों।
108 – समानान्तर।, दो रेखाओं में मैत्री। पल सकती।
109 – प्राय: अपढ़, दीन हो,पढ़े मानी, ज्ञानी विरले।
110 – कच्चा घड़ा है, काम में न लो, बिना, अग्नि परीक्षा।
111 – पक्षी कभी भी, दूसरों की नीड़ों में, घुसते नहीं।
112 – गुरु ने मुझे, प्रकट कर दिया, दीया दे दिया।
113 – तरंग देखूं, भंगुरता दिखती, ज्यों का त्यों ‘तोय’।
114 – बिना प्रमाद, श्वसन क्रिया सम, पथ पे चलूं।
115 – स्वानुभव की, समीक्षा पर करें, तो आँखें सुने।
116 – किसी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं।
117 – दृढ़-ध्यान में, ज्ञेय का स्पन्दन भी, बाधक नहीं।
118 – इष्ट-सिध्दि में, अनिष्ट से बचना, दुष्टता नहीं।
119 – शब्द पग हैं, जवाब न देना भी, लाजवाब है।
120 – पराश्रय से, मान बोना हो, कभी, देन्द्य-लाभ भी।
121 – वक़्ता व श्रोता, बने बिना, गूँगा सा, निजी-स्वाद ले।
122 – नियन्त्रण हो, निज पे, दीप बुझे, निजी श्वांस से।,
123 – अपना ज्ञान, शुध्द-ज्ञान न, जैसे, वाष्प, पानी न।
124 – औरों को नहीं, प्रभु को देखूँ तभी, मुस्कान बाटूं।
125 – अपमान को, सहता आ रहा है, मान के लिए।
126 – मान चाहूँ ना, ये अपमान अभी, सहा न जाता।
127 – यशोगन्ध की, प्यासी नासा स्वयं तू, निर्गन्धा है री !
128 – दमन, चर्म-, चक्षु का हो, नमन, ज्ञान चक्षु को।
129 – गाय बताती, तप्त-लोह पिण्ड को, मुख में ले ‘सत्’।
130 – कुछ स्मृतियाँ, आग उगलती, तो, कुछ सुधा सी।
131 – मरघट में, घूँघट का क्या काम?, घट कहाँ है ?
132 – पुण्य-फूला है, पापों का पतझड़, फल अभाप।
133 – गन्ध सुहाती, निम्बू-पुष्पों की, स्वाद।, उल्टी कराता।
134 – युवा कपोल, कपोल-कल्पित है, वृध्द-बोध में।
135 – तुम्बी तैरती-, तारती औरों को भी, गीली क्या सूखी ?
136 – लोहा सोना हो, पारस से परन्तु, जंग लगा क्या ?
137 – लायक-कृति, तिपाई सी अर्थ को, ऊँचा उठाती।
138 – गुणी का पक्ष,लेना ही विपक्ष पे, वज्रपात है।
139 – घी दूध बने, तो बने मुक्त पुन:, हम से रागी।
140 – शून्य को देखूँ, वैराग्य बढ़े, बढ़े, नेत्र की ज्योति।
141 – बिना डाँट के, शिष्य और शिशी का, भविष्य ही क्या ?
142 – प्रकाश में ना…, प्रकाश को पढ़ो तो, भूल ज्ञात हो।
143 – देख सामने, प्रभु के दर्शन हैं, भूत को भूल…
144 – दीन बना है, व्यर्थ में बाहर जा, अर्थ है स्वयं।
145 – भूख खुली है?, स्वाद लेना छोड़ दे, भर ले पेट…
146 – काल की दूरी, क्षेत्र दूरी से और, अनिवार्य है।
147 – पौधें न रोपे, और छाया चाहते, पौरुष्य नहीं।
148 – काले मेघ भी, नीचे तपी धरा को, देख, रो पड़े।
149 – पर की पीड़ा, अपनी करुणा की, परीक्षा लेती।
150 – गुरु मार्ग में, पीछे की वायुसम, हमें चलाते।
151 – धर्म का कल, बाद में न, अभी है, पाप का क्षय।
152 – दर्प को छोड़, दर्पण देखता तो, अच्छा लगता।
153 – घनी निशा में, माथा भयभीत हो, आस्था, आस्था है।
154 – एक आंख भी, काम में आती पर, एक पंख क्या ?
155 – कमल खिले, दिन के ग्रहण में, कर बध्द हो।
156 – परिचित भी, अपरिचित लगे, स्वस्थ्य ज्ञान में।
157 – बिन्दु जा मिला, सभी मित्रों से, जहाँ, सिन्धु वही है।
158 – योग-प्रयोग, साधन हैं, साध्य तो, सदुपयोग।
159 – सीना तो तानो, पसीना तो बहा दो, सही दिशा में।
160 – संघर्ष में भी, चन्दन सम सदा, सुगन्धी बाँटू।
161 – ध्वजा वायु से, लहराता पै वायु, आगे न आती।
162 – आगे न बनूँगा, अभी प्रभु-पदों में, बैठ तो जाऊँ।
163 – रस-रक्षक-, छिलका, सन्तरे का, अस्तित्व ही क्या ?
164 – छोटा भले हो, दर्पण मिले साफ़, खुद को देखूँ।
165 – पराग-पीता-, भ्रमर, फूला फूल, आतिथ्य- प्रेमी।
166 – दुग्ध-पात्र में, नीलम सा, जीव है, तनु-प्रमाण।
167 – बोधा-काश में, आकाश तारा सम, प्रकाशित हो।
168 – ज्ञानी कहता, जब बोलूँ, अपना, स्वाद छूटता।
169 – पराकर्षण, स्वभाव सा लगता, अज्ञानवश।
170 – प्रदर्शन तो, उथला है, दर्शन, गहराता है।
171 – तैराक बना, बनू गोताखोर सो, अपूर्व दिखे।
172 – वर्षा के बाद, कड़ी मिट्टी सी माँ हो, दोषी पुत्र पे।
173 – कछुवे सम, इन्द्रिय संयम से, आत्म- रक्षा हो।
174 – डूबना ध्यान, तैरना स्वाध्याय है, अब तो डूबो।
175 – भ्रमर से हो,फूल सुखी, हो दाता, पात्र-योग से।
176 – तारा दिखती, उस आभा में कभी, कुछ दिखी क्या ?
177 – सुधाकर की, लवणाकर से क्यों ?, मैत्री, क्या राज ?
178 – बाहर नहीं, वसन्त बहार तो, सन्त ! अन्दर…
179 – तारन टूटी, लगातार चिर से, चैतन्य-धारा।
180 – सूई निश्चय, कैंची व्यवहार है, दर्ज़ी-प्रमाण।
181 – चलो बढ़ो औ, कूदो, उछलो यही, धूवां-धार है।
182 – मन अपना, अपने विषय में।, क्यों न सोचता ?
183 – बिना चर्वण, रस का रसना का, मूल्य ही क्या है ?
184 – ख़ाली बन जा, घट डूबता भरा…, ख़ाली तैरता।
185 – साष्टांग सम्यक्, शान चढ़ा हीरा सा।, कहाँ दिखता ?
186 – निजी परायें, वत्सों को, दुग्ध-पान, कराती गो-माँ।
187 – छोटा सा है मैं, छोर छूती सी तृष्णा, छेड़ती मुझे।
188 – पक्ष व्यामोह, लोह-पुरुष को भी, लहू चूसता।
189 – सरोवर का, अन्तरंग छुपा है, तरंगवश।
190 – रसों का भान, जहाँ न, रहे वहाँ, शान्त-रस है।
191 – आँखें लाल हैं, मन अन्दर ! कौन ?, दोनों में दोषी ?
192 – जिससे तुम्हें, घृणा न हो उससे, अनुराग क्यों ?
193 – मोक्षमार्ग में, समिति समतल।, गुप्ति सीढ़ियाँ।
194 – धूप-छांव सी, वस्तुत: वस्तुओं की, क्या पकड़ है ?
195 – धूम्र से बोध, अग्नि का हो गुरु से, सो आत्म बोध।
196 – कब लौं सोचो।, कब करो, ना सोचे, करो क्या पाओ ?
197 – कस न, ढील, अनति हो, सो वीणा, स्वर लहरी।
198 – पुण्य-पथ लौ, पाप मिटे पुण्य से, पुण्य पथ है।
199 – पथ को कभी, मिटाना नहीं होता, पथ पे चलो।
200 – टिमटिमाते, दीप को भी पीट दे, भागती रात।
201 – नाविक तीर, ले जाता हमें, तभी, नाव की पूजा।
202 – हद कर दी, वे हद छूने उठें, क़द तो देखो।
203 – भारी वर्षा हो, दल-दल धुलता, अन्यथा मचे।
204 – माँगते हो तो, कुछ दो, उसी में से, कुछ देऊंगा।
205 – स्थान, समय, दिशा, आसन इन्हें, भूलते ध्यानी।
206 – अनेक यानी,बहुत नहीं किन्तु, एक ही है।
207 – मन की कृति, लिखूँ पढ़ूँ सुनूँ पै, कैसे सुनाऊँ ?
208 – कैसे, देखते, संत्रस्त संसार को ?, दया मूर्ति हो।
209 – मान शत्रु है, कछुआ बनूँ, बचूँ, खरगोश से।
210 – मोह टपरी, ज्ञान की आँधी में यूं, उड़ी जा रही
211 – पाँच भूतों के, पार, अपार पूत, अध्यात्म बसा।
212 – क़ैदी हूँ देह-, जेल में, जेलर ना…, तो भी भागा ना
213 – तेरा सो एक, सो सुख, अनेक में, दु:ख ही दु:ख।
214 – सहजता में, प्रतिकार का भाव, दिखता नहीं।
215 – आलोचन से, लोचन खुलते हैं, सो स्वागत है।
216 – साधना छोड़, काय-रत होना ही, कायरता है।
217 – भेद-वही है, कला, स्वानुभूति तो, अद्वैत की माँ…
218 – विज्ञान नहीं, सत्य की कसौटी है, ‘दर्शन’ यहाँ।
219 – आम बना लो, ना कहो, काट खाओ, क्रूरता तजो।
220 – नौका पार दे, सेतु-हेतु मार्ग में, गुरु-साथ दें।
221 – मुनि स्व में तो, सीधे प्रवेश करें, सर्प बिल में।
222 – चिन्तन न हो, तो चिन्ता मत करो, चित्स्वरुपी हो।
223 – दीप अनेक, प्रकाश में प्रकाश, एकमेक सा…
224 – चिन्तन कभी, समयानुबन्ध को, क्या स्वीकारता ?
225 – सामायिक में, कुछ न करने की, स्थिति होती है।
226 – बिना रस भी, पेट भरता, छोड़ो, मन के लड्डू।
227 – भोक्ता के पीछे, वासना, भोक्ता ढूँढे, उपासना को।
228 – दो जीभ न हो, जीवन में सत्य ही, सब कुछ है।
229 – सिर में चाँद, अच्छा निकल आया, सूर्य न उगा।
230 – होगा चाँद में, दाग, चाँदनी में ना, ताप मिटा लो।
231 – जैसे दूध में, बूरा पूरा पूरता, वैसा घी क्यों ना…?
232 – भरा घट भी, ख़ाली सा जल में सो, हवा से बचो !
233 – निजी-प्रकाश, किसी प्रकाशन में, कभी दिखा है ?
234 – स्वोन्नति से भी, पर का पराभव, उसे सुहाता… !
235 – शिरोधार्य हो, गुरु-पद-रज, सो, नीरज बनूँ।
236 – परवश ना, भीड़ में होकर भी, मौनी बने हो।
237 – दुर्भाव न टले, प्रश्न-भाव से सो, स्वभाव मिले।
238 – मोक्ष मार्ग तो, भीतर अधिक है, बाहर कम…!
239 – खाओ पीयो भी, थाली में छेद करो, कहाँ जाओगे ?
240 – समझ न थी, अनर्थ किया, आज, समझ, रोता।
241 – गुब्बारा फूटा, क्यों, मत पूछो, पूछो, फुलाया क्यों था ?
242 – कली न खिली, अंगुली से, समझो, योग्यता क्या है ?
243 – ज्ञान प्राण है, संयत हो त्राण है, अन्यथा श्वान।
244 – बदलाव है, पै स्वरुप में न, सो, ‘था’ है ‘रहेगा’।
245 – अर्ध शोधित-, पारा औषध नहीं, पूरा विष है।
246 – तटस्थ व्यक्ति, नहीं डूबता हो, तो, पार भी न हो।
247 – सम्मुख जा के, दर्पण में देखा तो, मैं नहीं दिखा।
248 – दृष्टि पल्टा दो, तामस समता हो, और कुछ ना…
249 – देवों की छाया, ना सही पै हवा तो, लग सकती।
250 – तेरा सत्य है, भविष्य के गर्भ में, असत्य धो ले।
251 – परिचित की, पीठ दिखा दे फिर !, सब ठीक है।
252 – मधुर बनो, दांत तोड़ गन्ना भी, लोकप्रिय है।
253 – किस ओर तू…!, दिशा मोड़ दे, युग-, लौट रहा है।
254 – दृश्य से हटा, ज्ञेय से ज्ञाता महा, सो अध्यात्म है।
255 – बिना ज्ञान के, आस्था को भीति कभी, छू न सकती।
256 – उर सिर से, महा वैसे ज्ञान से, दर्शन होता।
257 – पाषाण भीगे, वर्षा में, हमारी भी, यही दशा है।
258 – व्याकुल व्यक्ति, सम्मुख हो कैसे दूँ, उसे मुस्कान…!
259 – अधम-पत्ते, तोड़े, कोंपलें बढ़े, पौधा प्रसन्न !
260 – पूर्णा-पूर्ण तो, सत्य हो सकता पै।, बहुत नहीं।
261 – गर्व गला लो, गले लगा लो जो हैं, अहिंसा प्रेमी
262 – काश न देता, आकाश, अवकाश, तू कहाँ होता ?
263 – ज्ञेय चिपके, ज्ञान चिपकाता सो, स्मृति हो आती।
264 – सहयोगिनी, परस्पर में आँखें, मंगल झरी।
265 – फूल खिला पै, गन्ध न आ रही सो,काग़ज़ का है।
266 – नय नय है, विनय पुरोधा है, मोक्षमार्ग में।
267 – हमारे दोष, जिनसे गले धुले, वे शत्रु कैसे ?
268 – हमारे दोष, जिनसे फले फूले, वे बन्धु कैसे ?
269 – आपे में न हो, तभी तो अस्वथ्य हो, अब तो आओ…!
270 – भरोसा ही क्या ?, काले बाल वालों का, बिना संयम।
271 – वैराग्य, न हो, बाढ़ तूफ़ान सम, हो ऊर्ध्व-गामी।
272 – छाया का भार, नहीं सही परन्तु, भाव तो है।
273 – फूलों की रक्षा, काँटों से हो शील की, सादगी से हो।
274 – बहुत मीठे, बोल रहे हो अब !, मात्रा सुधारो।
275 – तुमसे मेरे, कर्म कटे, मुझसे, तुम्हें क्या मिला ?
276 – राजा प्रजा का, वैसा पोषण करे, मूल वृक्ष का।
277 – कोई देखे तो, लज्जा आती, मर्यादा।, टूटने से ना…!
278 – आती छाती पे, जाती कमर पे सो, दौलत होती।
279 – सिध्द घृत से, महके, बिना गन्ध, दुग्ध से हम।
280 – कपूर सम, बिना राख बिखरा, सिध्दों का तन।
281 – खुली शीप में, स्वाति की बुन्द मुक्ता, बने, और न…!
282 – दिन में शशि, विदुर सा लगता, सुधा-विहीन।
283 – कब, पता न, मृत्यु एक सत्य है, फिर डर क्यों ?
284 – काल घूमता, काल पे आरोप सो, क्रिया शून्य है।
285 – बिना नयन, उप नयन किस, काम में आता है ?
286 – गूँगा गुड़ का, स्वाद क्या नहीं लेता?, वक़्ता क्यों बनो?
287 – मद का तेल, जल चुका सो बुझा, विस्मय-दीप।
288 – अन जान था, तभी मजबूरी में, मज़दूर था।
289 – बिन देवियाँ, देव रहे, देवियाँ, बिन-देव ना…!
290 – काला या धोला, दाग, दाग है फिर, काला तिल भी…
291 – हीरा, हीरा है, काँच, कांच है किन्तु, ज्ञानी के लिए…
292 – पापों से बचे, आपस में भिड़े क्या, धर्म यही है ?
293 – नौ मास उल्टा, लटका आज तप, कष्ट कर क्यों ?
294 – डाल पे पका, गिरा आम मीठा हो, गिराया खट्टा…
295 – भार हीन हो, चारु-भाल की माँग, क्या मान करो ?
296 – निद्रा वासना, दो बहनें हैं जिन्हें, लज्जा न छूती।
297 – प्रतिशोध में, बोध अंधा हो जाता, शोध तो दूर…
298 – पक्षाघात तो, आधे में हो, पूरे में, सो पक्षपात…
299 – प्रति-निधि हूँ, सन्निधि पा के तेरी, निधि माँगू क्या ?
300 – आस्था व बोध, संयम की कृपा से, मंज़िल पाते।
301 – स्मृति मिटाती, अब को, अब की हो, स्वाद शून्य है।
302 – शब्द की यात्रा, प्रत्यक्ष से अन्यत्र, हमें ले जाती।
303 – चिन्तन में तो, परावलम्बन होता, योग में नहीं।
304 – सत्य, सत्य है, असत्य, असत्य तो, किसे क्यों ढांकू…?
305 – किसको तजूं, किसे भजूँ सबका, साक्षी हो जाऊँ।
306 – न पुंसक हो, मन ने पुरुष को, पछाड़ दिया…
307 – साधना क्या है ?, पीड़ा तो पी के देखो, हल्ला न करो।
308 – खाल मिली थी, यहीं मिट्टी में मिली, ख़ाली जाता हूँ।
309 – जिस भाषा में, पूछा उसी में तुम, उत्तर ना दो।
310 – कभी न हँसो, किसी पे, स्वार्थवश, कभी न रोओ।
311 – दर्पण कभी, न रोया न हसा, हो, ऐसा सन्यास।
312 – ब्रह्म रन्ध्र से-, बाद, पहले श्वास, नाक से तोलो।
313 – सामायिक में, तन कब हिलता, और क्यों देखों…?
314 – कम से कम, स्वाध्याय (श्रवण) का वर्ग हो प्रयोग-काल।
315 – एक हूँ ठीक, गोता-खोर तुम्बी क्या, कभी चाहेगा ?
316 – बिना विवाह, प्रवाहित हुआ क्या, धर्म-प्रवाह।
317 – दूध पे घी है, घी से दूध न दबा, घी लघु बना।
318 – ऊपर जाता, किसी को न दबाता, घी गुरु बना।
319 – नाड़ हिलती, लार गिरती किन्तु, तृष्णा युवती।
320 – तीर न छोड़ो, मत चुको अर्जुन !, तीर पाओगे।
321 – द्वेष से बचो, लवण दूर रहे, दूध न फटे।
322 – बाँध भले ही, बाँधो, नदी बहेगी, अधो या ऊर्ध्व।
323 – अनागत का, अर्थ, भविष्य न, पै, आगत नहीं।
324 – जितना चाहो, जो चाहो, जब चाहो, क्यों ! कभी मिला ?
325 – तेरी दो आँखे, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा।
326 – तुलनीय भी, सन्तुलित तुला में, तुलता मिला।
327 – अर्पित यानी, मुख्य, समर्पित सो, अहंका त्यागो।
328 – गन्ध जिव्हा का, खाद्य न, फिर क्यों तू, सौगंध खाता ?
329 – स्व-स्व कार्यों में, सब लग गये पै, मन न लगा ।
330 – तपस्वी बना, पर्वत सूखे पेड़, हड्डी से लगे।
331 – अन्धकार में, अन्धा न, आंख वाला, डर सकता।
332 – जल कण भी, अर्क तल को, देखा !, धूल खिलाता।
333 – जल में तैरे, स्थूल-काष्ठ भी, लघु-, कंकर डूबे।
334 – छाया सी लक्ष्मी, अनुचरा हो, यदि, उसे न देखो।
335 – गुरु औ शिष्य, आगे-पीछे, दोनों में, अन्तर कहाँ ?
336 – सत्य न पिटे, कोई न मिटे ऐसा, न्याय कहाँ है ?
337 – ऊहापोह के, चक्रव्यूह में-धर्म, दुरुह हुआ।
338 – गुणालय में, एकाध दोष कभी, तिल सा लगे।
339 – नेता की दृष्टि, निजी दोषों पे हो, या, पर गुणों पे।
340 – गिनती नहीं, आम में मोर आयी, फल कितने ?
341 – दु:खी जग को, तज, कैसे तो जाऊँ, मोक्ष ? सोचता।
342 – दीप का जल, जल काई उगले, प्रसंग वश।
343 – बोलो ! माटी के, दीप-तले अंधेरा, या रतनों के ?
344 – बिना राग भी, जी सकते हो जैसे, निर्धूम अग्नि।
345 – दायित्व भार, कन्धों पे आते, शक्ति, सो न सकती।
346 – सुलझे भी हो, और औरों को क्यों ?, उलझा देते ?
347 – तीर्थंकर क्यों ?, आदेश देते नहीं, सो ज्ञात हुआ
348 – आज्ञा का देना, आज्ञा पालन से है, कठिन-तम।,
349 – कब बोलते ?, क्यों बोलते ? क्या बिना, बोले न रहो ?
350 – मिट्टी तो खोदो, पानी को नहीं खोजो, पानी फूटेगा।
351 – तपो वर्धिनी, मही में ही मही है, स्वर्ग में नहीं।
352 – और तो और, गिले दुपट्टे को भी, न फटकारो।
353 – ख़ूब बिगड़ा, तेरा उपयोग है, योगा कर ले !
354 – ज्ञान ज्ञेय से, बड़ा, आकाश आया, छोटी आँखों में।
355 – पचपन में, बचपन क्यों ? पढ़ो, अपनापन से।
356 – भोगों की याद, सड़ी-गली धूप सी, जान खा जाती
357 – सहगामी हो, सहभागी बने सो, नियम नहीं।
358 – पद चिह्नों पे, प्रश्न चिह्न लगा सो, उत्तर क्या दूँ ( किधर जाना ?)
359 – नीर नहीं तो, समीर सही प्यास।, कुछ तो बुझे…
360 – निश्चिन्तता में, भोगी सो जाता, नही, योगी खो जाता।
361 – शत्रु मित्र में, समता रखें, न कि, भक्ष्या-भक्ष्य में।
362 – आस्था झेलती, जब आपत्ति आती, ज्ञान चिल्लाता।
363 – पैर उठते, सीधे मोही के भी, पै, उल्टे पड़ते।
364 – आत्मा ग़लती, रागाग्नि से, लोदी सी, कटती नहीं।
365 – नदी कभी भी, लौटती नहीं फिर !, तू क्यों लौटता ?
366 – समर्पण पे, कर्त्तव्य की कमी से, सन्देह न हो।
367 – कुण्डली मार, कंकर पत्थर पे, क्या मान बैठे ?
368 – खुद बँधता, जो औरों को बाँधता, निस्संग हो जा।
369 – सदुपयोग-, ज्ञान का दुर्लभ है, मद-सुलभ।
370 – ज्ञानी हो क्यों कि, अज्ञान की पीड़ा में, प्रसन्न-जीते।
371 – ज्ञान की प्यास, सो कही अज्ञान से, घृणा तो नहीं।
372 – प्रभु-पद में, वाणी, काया के साथ मन ही भक्ति।
373 – मूर्छा को कहा, परिग्रह, दाता भी, मूर्च्छित न हो।
374 – जीवनोद्देश, जिना देश-पालन, अनुपदेश।
375 – द्वेष से राग, विषैला होता जैसा, शूल से फूल।
376 – विषय छूटे, ग्लानि मिटे, सेवा से, वात्सल्य बढ़े।
377 – अग्नि पिटती, लोह की संगति से, अब तो चेतो।
378 – सर्प ने छोड़ी, कांचली, वस्त्र छोड़े !, विष तो छोड़ो…!
379 – असमर्थन, विरोध सा लगता, विरोध नहीं।
380 – हम वस्तुत:, दो हैं, तो एक कैसे, हो सकते हैं ?
381 – मैं के स्थान में, हम का प्रयोग क्यों, किया जाता है ?
382 – मैं हट जाऊँ, किन्तु हवा मत दो, और न जले…!
383 – वैधानिक तो, तनिक बनो फिर, अधिक धनी।
384 – बड़ी बूँदों की, वर्षा सी बड़ी राशि, कम पचती।
385 – साधू वृक्ष है, छाया फल-प्रदाता, जो धूप खाता।
386 – जिज्ञासा यानी, प्राप्त में असन्तुष्टि, धैर्य की हार…!
387 – बिना अति के, प्रशस्त नीति करो, सो विनती है।
388 – सुनो तो सही, पहले सोचो नहीं, पछताओगे।
389 – केन्द्र को छूती, नपी, सीधी रेखाएँ, वृत्त बनाती।
390 – शक्ति की व्यक्ति, और व्यक्ति की मुक्ति होती रहती।
391 – जो है ‘सो’ थामें, बदलता, होगा ‘सो’ है में ढलता।
392 – चिन्तन-मुद्रा, प्रभु की नहीं क्यों कि वह दोष है।
393 – पथ में क्यों तो, रुको, नदी को देखो चलते चलो।
394 – ज्ञानी ज्ञान को, कब जानता जब, आपे में होता।
395 – बँटा समाज, पंथ-जाति-वाद में, धर्म बाद में
396 – घर की बात, घर तक ही रहे।, बे-घर न हो।
397 – अकेला न हूँ, गुरुदेव साथ हैं, हैं आत्मसात् वे।
398 – निर्भय बनो, पर निर्भिक होने का, गर्व न पालो।
399 – अति मात्रा में, पथ्य भी कुपथ्य हो, मात्रा माँ सी हो।
400 – संकट से भी, धर्म-संकट और, विकट होता।
401 – अँधेरे में हो, किंकर्त्तव्य मूढ़ सो, कर्त्तव्य जीवी।
402 – धन आता दो, कूप साफ़ कर दो, नया पानी लो।
403 – हम से कोई, दु:खी नहीं हो, बस !, यही सेवा है।
404 – चालक नहीं, गाड़ी दिखती, मैं न, साड़ी दिखती।
405 – एक दिशा में, सूर्य उगे कि दशों-, दिशाएँ ख़ुश।
406 – जीत सको तो, किसी का दिल जीतो, सो, बैर न हो।
407 – पूरक बनो, सिंह से वन, सिंह, वन से बचा।
408 – तैरना हो तो, तैरो हवा में, छोड़ो !, पहले मोह।
409 – मैं निर्दोषी हूँ ?, प्रभु ने देखा, वैसा, किया करता।
410 – चाँद को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है।
411 – प्रभु ने मुझे, जाना-माना परन्तु, अपनाया न !
412 – गुरु कृपा से, बाँसुरी बना, मैं तो, ठेठ बाँस था।
413 – पर्याय क्या है ?, तरंग जल की सो !, नयी-नयी है।
414 – पुण्य का त्याग, अभी न, बुझे आग, पानी का त्याग।
415 – प्रेरणा तो दूँ, निर्दोष होने, रुचि, आप की होगी।
416 – वे चल बसे, यानी यहाँ से वहाँ, जा कर बसे।
417 – कहो न, सहो, सही परीक्षा यहीं, आपे में रहो।
418 – पाँचों की रक्षा, मुठ्ठी में, मुठ्ठी बंधी, लाखों की मानी।
419 – सन्देह होगा, देह है तो, देहाती !, विदेह हो जा।
420 – केन्द्र की ओर, तरंगें लौटती सी, ज्ञान की यात्रा।
421 – बँधो न बाँधो, काल से व काल को, कालजयी हो।
422 – गुरु नम्र हो, झंझा में बड़ गिरे, बेंत ज्यों की त्यों।
423 – तैरो नहीं तो, डूबो कैसे, ऐसे में, निधि पाओगे ?
424 – मलाई कहाँ, अशान्त दूध में, सो !, प्रशान्त बनो।
425 – मध्य रात्रि में, विभीषण आ मिला, राम, राम थे।
426 – व्यापक कौन ?, गुरु या गुरु वाणी, किस से पूछे ?
427 – योग का क्षेत्र, अन्तरराष्ट्रीय नहीं, अन्तर्जगत है।